सबब क्या है कभी समझी नहीं मैं कि टूटी तो बहुत बिखरी नहीं मैं रखी है गुफ़्तुगू उस से हर इक पल सुख़न जिस से कभी रखती नहीं मैं ये चोट अपने ही हाथों से लगी है किसी के वार से ज़ख़्मी नहीं मैं करूँ क्यूँ याद तेरे ख़ाल-ओ-ख़द अब शिकस्ता आइने चुनती नहीं मैं अजब थी रहगुज़र भी हम-रही की क़दम रख कर कभी पलटी नहीं मैं जो पहुँची साहिलों पर तब खुला है कि अब वो तिश्नगी रखती नहीं मैं