सभी अंदाज़-ए-हुस्न प्यारे हैं हम मगर सादगी के मारे हैं उस की रातों का इंतिक़ाम न पूछ जिस ने हँस हँस के दिन गुज़ारे हैं ऐ सहारों की ज़िंदगी वालो कितने इंसान बे-सहारे हैं लाला-ओ-गुल से तुझ को क्या निस्बत ना-मुकम्मल से इस्तिआ'रे हैं हम तो अब डूब कर ही उभरेंगे वो रहें शाद जो किनारे हैं शब-ए-फ़ुर्क़त भी जगमगा उट्ठी अश्क-ए-ग़म हैं कि माह-पारे हैं आतिश-ए-इश्क़ वो जहन्नम है जिस में फ़िरदौस के नज़ारे हैं वो हमीं हैं कि जिन के हाथों ने गेसू-ए-ज़िंदगी सँवारे हैं हुस्न की बे-नियाज़ियों पे न जा बे-इशारे भी कुछ इशारे हैं