सभी दिल-शाद मंज़र छोड़ आया सफ़र में हूँ मैं घर-वर छोड़ आया तअ'ल्लुक़ तिश्नगी से है पुराना ये सोचा और समुंदर छोड़ आया मिरी क़ुर्बानियाँ क्या पूछते हो परिंदा हूँ और अम्बर छोड़ आया भटकने का था ऐसा शौक़ मुझ को कि मैं दामान-ए-रहबर छोड़ आया जहाँ से ज़िंदगी की इब्तिदा की उसी जा मौत का डर छोड़ आया मरम्मत में बहुत ख़र्चा था साहब मैं अपने ख़्वाब जर्जर छोड़ आया मुझे 'अफ़रंग' दुख इस बात का है मैं उस की आँखों को तर छोड़ आया