फूल कुचले जा रहे थे बाग़बाँ चीख़ा किया ये ज़मीं रोती रही वो आसमाँ चीख़ा किया जो मकाँ वाले थे सारे बे-ख़बर सोते रहे रात भर सड़कों पे कोई बे-मकाँ चीख़ा किया जितने ज़िंदा लोग थे सब लाश बन कर रह गए जब मदद के वास्ते इक नीम-जाँ चीख़ा किया जानते थे हम भटक कर ही मिलेंगी मंज़िलें अपने ही रस्ते चले फिर राह-दाँ चीख़ा किया ज़ाहिरन हम दोनों उस की जान के दुश्मन हुए वो जो रिश्ता तेरे मेरे दरमियाँ चीख़ा किया जब उठाई जानी थी आवाज़ ज़ालिम के ख़िलाफ़ चुप रहे अहल-ए-ज़बाँ इक बे-ज़बाँ चीख़ा किया लम्हा-ए-हिज्राँ गुज़रने बाद ये आलम रहा वो कहीं रोता रहा और मैं यहाँ चीख़ा किया ये हुआ फिर बाँट ली यारों ने सारी काएनात और मैं तन्हा पस-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ चीख़ा किया तुम को तो 'अफ़रंग' आना ही नहीं था लौट कर मैं तुम्हारा नाम ले कर राएगाँ चीख़ा किया