सभी से हम नहीं खुलते कि सब नहीं खुलते वगर्ना महफ़िल-ए-याराँ में कब नहीं खुलते हर एक शख़्स को हुस्न-ए-नज़र नहीं मिलता हर एक शख़्स पे शेर-ओ-अदब नहीं खुलते यहाँ पे दाद को ज़ंजीर अब नहीं खिंचती यहाँ पे अद्ल को दरवाज़े अब नहीं खुलते कहीं अना पे यक़ीनन लगी है चोट नई पुराने ज़ख़्म यूँही बे-सबब नहीं खुलते ये दौर वो नहीं फिर भी शरीफ़ ज़ादों के बुज़ुर्ग सामने गर हों तो लब नहीं खुलते हमारे ऐब हमें जो बताए सो मोहसिन कि आइनों पे भी ख़ुद के अक़ब नहीं खुलते कभी 'नक़ीब' सभी पर खुली किताब कोई कभी तो हम पे भी ख़ुद अपने ढब नहीं खुलते