ऊँचे मकान खा गए सब मेरे घर की धूप हिस्से में मेरे रह गई बालिश्त भर की धूप करता रहूँ निगाह मिला कर मैं गुफ़्तुगू हर चंद चुभ रही हो तिरे कर्र-ओ-फ़र की धूप साया दरीदा-पैरहनी पर ख़ुदी का था रेशम सा लम्स लाई थी गो सीम-ओ-ज़र की धूप ज़रख़ेज़ी-ए-ज़मीन-ए-सुख़न के लिए मुफ़ीद दिल की हवा शुऊ'र का पानी नज़र की धूप दिल के गुमान सा कि दुआ के यक़ीन सा एहसास के लिहाफ़ सा लाई कोहर की धूप या तो दिमाग़-ओ-दिल के अँधेरों को दूर कर या अपनी राह ले बड़ी आई किधर की धूप रहिए 'नक़ीब' ऐसी फ़ज़ा में कि है जहाँ शेर-ओ-अदब की चाँदनी इल्म-ओ-हुनर की धूप