सबील-ए-सज्दा-ए-ना-मुख़्ततम बनाते हुए ख़ुदा तक आए हैं क्या क्या सनम बनाते हुए ग़ुरूर-ए-इश्क़ में इक इंकिसार-ए-फ़क़्र भी है ख़मीदा-सर हैं वफ़ा को अलम बनाते हुए तिरे ख़याल की रौ है कि कोई मौज-ए-तरब गुज़र रही है अजब ज़ेर-ओ-बम बनाते हुए जबीन-ए-वक़्त पे सब्त अपना नक़्श उस ने किया दिलों के दाग़ चराग़-ए-हरम बनाते हुए तो क्या ज़रूर कि तहक़ीर ख़ल्क़ करते फिरो इक अपना अक्स-ए-अना मुहतशम बनाते हुए गुज़ारते हैं कहाँ ज़िंदगी गुज़रती है बस एक राह ब-सू-ए-अदम बनाते हुए