सब्र-ओ-सुकून-ओ-होश गए इंतिज़ार में अब कुछ नहीं रहा है मिरे इख़्तियार में हम इस तरह रहे चमन-ए-रोज़गार में सूखे कभी ख़िज़ाँ में न फूले बहार में आ जान-ए-आरज़ू कि तिरे इंतिज़ार में गुलशन में दिलकशी न कशिश लाला-ज़ार में कुंज-ए-क़फ़स में आतिश-ए-गुल ने ग़ज़ब किया चारों तरफ़ से आग लगा दी बहार में कहता है और किस को सफ़र-दर-वतन जहाँ मैं अजनबी हूँ आज-कल अपने दयार में मैख़ाना-ए-अलस्त से ए'लान हो गया साक़ी का इज़्न-ए-आम है अब की बहार में किस की नवेद-ए-आमद-ओ-आमद है ऐ ख़ुदा क्यों आग सी लगी है तनफ़्फ़ुस के तार में जो चाहता है करता है वो कारसाज़ है किस को है दख़्ल मर्ज़ी-ए-परवरदिगार में शम-ए-हयात बुझ गई या दिल बुझा 'क़दीर' या इंक़लाब हो गया लैल-ओ-नहार में