सब्र मुश्किल था मोहब्बत का असर होने तक जान ठहरी न दिल-ए-दोस्त में घर होने तक शब-ए-फ़ुर्क़त की भी होने को सहर तो होगी हाँ मगर हम नहीं होने के सहर होने तक सहने हैं जौर-ओ-सितम झेलने हैं रंज-ओ-अलम या'नी करनी है बसर उम्र बसर होने तक तेरा पर्दा भी उठा देगी मिरी रुस्वाई तेरा पर्दा है मिरे ख़ाक-ब-सर होने तक मुतज़लज़ल तो है मुद्दत से निज़ाम-ए-आलम नौबत आ पहुँची है अब ज़ेर-ओ-ज़बर होने तक फ़ुर्सत-ए-मातम-ए-परवाना कहाँ से आए शम्अ' को मौत से लड़ना है सहर होने तक ऐ 'वफ़ा' मा'रका-ए-इश्क़ तो सर क्या होगा हो चुकेंगे हमीं ये मा'रका सर होने तक