सब्र-ओ-ज़ब्त की जानाँ दास्ताँ तो मैं भी हूँ दास्ताँ तो तुम भी हो अपनी अपनी अज़्मत का आसमाँ तो मैं भी हूँ आसमाँ तो तुम भी हो साहिलों की दूरी से सावनों के मौसम में कैसे डूब सकते थे बे-क़रार मौसम में बादबाँ तो मैं भी हूँ बादबाँ तो तुम भी हो जिस्म अपने फ़ानी हैं जान अपनी फ़ानी है फ़ानी है ये दुनिया भी फिर भी फ़ानी दुनिया में जावेदाँ तो मैं भी हूँ जावेदाँ तो तुम भी हो हम ने जो भी पाया है इश्क़ के ख़ज़ाने से वो है दफ़्न सीने में इन दुखों का जान-ए-जाँ पासबाँ तो मैं भी हूँ पासबाँ तो तुम भी हो फिर पुरानी रस्में हैं और फिर वही दुनिया दरमियाँ में हाएल है वक़्त और समय का तर्जुमाँ तो मैं भी हूँ तर्जुमाँ तो तुम भी हो हम बिछड़ चुके लेकिन रस्म-ओ-राह की ख़ातिर मिलते रहते हैं वर्ना कुछ उदास शामों का राज़-दाँ तो मैं भी हूँ राज़-दाँ तो तुम भी हो एक जैसा दरिया है एक जैसी मौजें हैं एक जैसी तुग़्यानी आब-ए-ग़म की लहरों के दरमियाँ तो मैं भी हूँ दरमियाँ तो तुम भी हो