सच बोलने के जुर्म में नेज़े पे सर रहा क़ातिल ब-इज़्ज़-ओ-जाह भी ना-मो'तबर रहा क्या बारिश-ए-बला थी कि सब कुछ बहा गई अच्छा हुआ मलंग बे-दीवार-ओ-दर रहा यारब ख़ता मुआ'फ़ कहाँ ढूँढता तुझे मैं अपनी ही तलाश में शाम-ओ-सहर रहा आज़ाद हो चुका था क़फ़स से तो क्या हुआ उड़ता कहाँ परिंद जो बे-बाल-ओ-पर रहा चारों दिशा थी 'शम्स' अमावस खड़ी हुई भीगा शजर उदास मगर रात भर रहा