सच की ख़ातिर बता तू लड़ा है कभी हक़ पे रह कर क़दम भर चला है कभी क्यूँ कमी तेरी महसूस होगी मुझे साथ मेरे कहाँ तू रहा है कभी मुझ से पहले भी तो होंगे नाक़िस यहाँ शोर इतना मगर क्या मचा है कभी हो के आज़ाद भी मैं तो हूँ क़ैद में पर कटा कर परिंदा उड़ा है कभी तू क्या जाने बिखरने में क्या लुत्फ़ है राह में यार की तू बिछा है कभी झूट चलता रहा सर को ऊँचा किया सच भला क्या किसी को दिखा है कभी जिस को पढ़ कर ज़माना सँवरने लगे शे'र ऐसा 'हिना' क्या कहा है कभी