सच यही है कि बहुत आज घिन आती है मुझे वैसे वो शय कभी मतलूब रही भी है मुझे अपनी तन्हाई को बाज़ार घुमा लाया हूँ घर की चौखट पे पहुँचते ही लिपटती है मुझे तुझ से मिलता हूँ तो आ जाती है आँखों में नमी तू समझता है शिकायत ये पुरानी है मुझे उस के शर से मैं सदा माँगता रहता हूँ पनाह इसी दुनिया से मोहब्बत भी बला की है मुझे बस इसी वजह से है उस की ज़बाँ में लुक्नत उस को वो बात सुनानी है जो कहनी है मुझे