सदा कुछ ऐसी मिरे गोश-ए-दिल में आती है कोई बिना-ए-कुहन जैसे लड़खड़ाती है रचा हुआ है फ़ज़ाओं में एक अथाह हिरास दिमाग़ शल है मगर रूह सनसनाती है मुझे यक़ीन है आँधी कोई उठी है कहीं कि लौ चराग़-ए-शबिस्ताँ की थरथराती है उमीद यास के गहरे ख़मोश जंगल में हवा-ए-शाम की मानिंद सरसराती है सवाल है ग़म-ए-हस्ती के बीत जाने का ये ज़िंदगी तो बहर-हाल बीत जाती है ख़याल-ए-उम्र-ए-गुज़िश्ता ज़रा तवक़्क़ुफ़ कर ज़मीन क़दमों के नीचे से निकली जाती है मैं अपनी आग में जल कर कभी का ख़ाक हुआ ये ज़िंदगी मुझे क्या ख़ाक में मिलाती है निशाना-बाज़ फ़लक तेरे नावकों की ख़ैर कि जिन की ज़द पे मिरे हौसलों की छाती है लचक ही जाती है शाख़ अपने आशियाँ की भी चमन में गाती हुई जब बहार आती है फ़ुग़ान-ए-दर्द लबों पर न आइयो ज़िन्हार मिरी सलीक़ा-शिआ'री पे बात आती है इधर ये गिरिया-ए-अब्र और उधर वो ख़ंदा-ए-बर्क़ मिज़ाज-ए-दहर मिरे दोस्त तंज़ियाती है रहीन-ए-रस्म-ओ-रिवायत हो जिस की बुत-शिकनी वो बुत-शिकन भी हक़ीक़त में सोमनाती है बपा है शोर-ए-क़यामत दिमाग़ में 'अख़्तर' ज़बान-ए-ख़ामा मगर ज़मज़मे लुटाती है