सदा-ए-दिल ही को आवाज़ा-ए-जहाँ न कहो ख़ुद अपनी हद्द-ए-नज़र ही को आसमाँ न कहो हर एक ज़र्रे को हँसता दिया बनाना है फ़लक के चाँद-सितारों की दास्ताँ न कहो न लाओ या तो ज़बाँ पर हदीस-ए-नाकामी नहीं तो अपनी तमन्ना को फिर जवाँ न कहो ये अपना घर है चलो इस पे तसफ़िया कर लें क़फ़स कहूँ न इसे मैं तुम आशियाँ न कहो न इत्तिफ़ाक़-ए-अमल है न एक सम्त-ए-क़दम अभी तो भीड़ है ये इस को कारवाँ न कहो ख़ुसूमतों में ख़िरद की जहाँ सुने न सुने मिरे सुरूद-ए-मोहब्बत को राएगाँ न कहो जहाँ हर एक को सज्दे का हक़ नहीं हासिल उसे ख़ुदा-ए-मोहब्बत का आस्ताँ न कहो उजड़ भी जाए नशेमन तो फिर नशेमन है क़फ़स में फूल भी रख दें तो आशियाँ न कहो ज़माना मुझ पे नहीं तुम पे ख़ंदा-ज़न होगा तुम आज दोस्तों 'मुल्ला' को नुक्ता-दाँ न कहो