सदाक़त उठती जाती है जहाँ से ज़मीं टकरा न जाए आसमाँ से शरर-हा-ए-ग़म-ए-हस्ती को साक़ी बुझा भी दे शराब-ए-अर्ग़वाँ से सितम-गारों सितम से बाज़ आओ डरो हम ना-तवानों की फ़ुग़ाँ से शब-ए-ग़म की हज़ीं तन्हाइयों में सुकून-ए-दिल कोई लाए कहाँ से बहार आई न जब अपने चमन में मोहब्बत हो गई आख़िर ख़िज़ाँ से जो दिल का हाल सब उन को सुना दे 'नरेश' ऐसी ज़बाँ लाऊँ कहाँ से