समाअ'त पर दबाव वक़्त का मुँह-ज़ोर होता है ख़मोशी के तआ'क़ुब में हमेशा शोर होता है तुम्हारा नाम ले कर खींचती हूँ आइने पर ख़त झपकती हूँ ज़रा आँखें तो चेहरा और होता है मुझे क्यों हर ज़माना ख़ून में लत-पत मिला है फिर बड़ों से जब सुना था ज़ुल्म का इक दौर होता है ख़ुदारा मुफ़्तियान-ए-शहर से कोई तो ये पूछे चुराए रोटियाँ भूका अगर तो चोर होता है हमारे हाँ बिछड़ना भी कबीरा नेकियों में है हमारे हाँ मुसलसल इश्क़ अब इस तौर होता है कोई सच्ची कहावत है मोहब्बत वो लड़ाई है लड़े जो जीतने के शौक़ में कमज़ोर होता है तभी तो 'सादिया' खुल कर नहीं मिलती किसी से मैं बिछड़ना ज़ेहन में पहले ही ज़ेर-ए-ग़ौर होता है