सर्द राहों में भटकती हुई शामों की तरह मैं तिरे साथ चली आई हूँ रस्तों की तरह बस यही देख के तज्दीद-ए-मोहब्बत कर ली रो पड़ा था वो मिरे सामने बच्चों की तरह घर उदासी ने पड़ाव है किया मुद्दत से ख़्वाब कमरों में सजा रक्खे हैं कत्बों की तरह बाग़-ए-हिज्राँ की बहारों के भी सुब्हान-अल्लाह ज़ख़्म फूलों की तरह फूल हैं ज़ख़्मों की तरह लिख रही हूँ तिरे माथे पे कोई 'मीर' का शे'र पढ़ रही हूँ तिरी आँखों को सहीफ़ों की तरह वो मुझे छोड़ गया हिज्र मुसल्ले पर रात मैं अदा करती रही जिस को नमाज़ों की तरह मौत से रिश्ता मिरा माँ की तरह है 'सादी' ज़िंदगी लगती है मुझ को सगी बहनों की तरह