सदियों की गहरी महरूमी रहम-ओ-करम बना कर दे आधा ख़ुल्द-ए-बरीं में या-रब आधा ख़ाक-ए-ज़मीं पर दे मौसम के हमराह चले आते हैं कुछ अंदेशे भी एक कुशादा छत के नीचे पुख़्ता दीवार-ओ-दर दे महक रही हैं हर बस्ती में आम और जामुन की फ़स्लें बच्चे क्यों ख़ामोश खड़े हैं सब के हाथ में पत्थर दे सब को सब कुछ देने वाले मैं भी एक भिकारी हूँ बिन माँगे बिन हाथ पसारे तू मेरा दामन भर दे उस के हर गोशे से मुझ को अपनी ही ख़ुशबू आए जो घर की तारीफ़ में आए अरमानों को वो घर दे जाने क्या क्या माँग रहा है बच्चों का बेदार शुऊ'र अंगारों पर ख़ुशबू दहका सहरा बीच समुंदर दे ऐसे कपड़े पहना मुझ को जो आँखों को भले लगें घास-फूस की दीवारों को घास-फूस का छप्पर दे जो भी गुज़रा जैसा गुज़रा मैं ने सब कुछ झेल लिया बे-पायाँ रहमत के साए अब बच्चों के सर पर दे मुझ से अपने ही ज़ख़्मों का बोझ नहीं उठता 'पर्वाज़' जितना जो है वो काफ़ी है कुछ न अंदर बाहर दे