ख़ुद अपनी ही हदों का दायरा था साएबाँ हम थे न जाने रात कितने तजरबों के दरमियाँ हम थे सदाओं के तआ'क़ुब में ख़ुद अपने होश खो बैठे दरख़्तों की घनेरी छाँव थी और बे-ज़बाँ हम थे किया जब ग़ौर तो सब वुसअ'तें महदूद-तर निकलीं फ़रेब-ए-ख़ुद-निगाही में तो बहर-ए-बे-कराँ हम थे गिरी इक ईंट दीवार-ए-शिकस्ता से मगर साकित कि जैसे सैकड़ों सदियों के बस इक राज़-दाँ हम थे चलो कब तक यूँही मलते रहें बोझल सी पलकों को कि जिस में रात भर घुटता रहा दम वो धुआँ हम थे कभी हँसना कभी रोना कभी ख़ुशियाँ कभी आँसू किराए-दार वो सब थे किराए का मकाँ हम थे अजब अंदाज़ की सोज़िश थी 'नाशिर' झुलसे माज़ी की मिला करते थे शहज़ादे जहाँ वो दास्ताँ हम थे