सद-सौग़ात सकूँ फ़िरदौस सितंबर आ ऐ रंगों के मौसम मंज़र मंज़र आ आधे-अधूरे लम्स न मेरे हाथ पे रख कभी सुपुर्द-ए-बदन सा मुझे मयस्सर आ कब तलक फैलाएगा धुँद मिरे ख़ूँ में झूटी सच्ची नवा में ढल कर लब पर आ मुझे पता था इक दिन लौट के आएगा तू रुका हुआ दहलीज़ पे क्यूँ है अंदर आ ऐ पैहम-पर्वाज़ परिंदे दम ले ले नहीं उतरता आँगन में तो छत पर आ उस ने अजब कुछ प्यार से अब के लिक्खा 'बानी' बहुत दिनों फिर घूम लिया वापस घर आ