ग़ज़ल 'ग़ालिब' न तन्हा 'मीर' से है जुड़ी सद हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से है मुक़द्दर हो चुकी थी मौत लेकिन ये दिल ज़िंदा किसी तदबीर से है मैं मंज़र और न पस-मंज़र को देखूँ मुझे मतलब तिरी तस्वीर से है गिरे होते मिरे आँसू तो रोता कि तेरा ग़म मिरी तक़दीर से है मैं बैठा हूँ दुआ से हाथ उठाए नदामत इस क़दर तक़्सीर से है फ़क़त दुनिया इसे समझूँ कि मानूँ तिरी मंशा मिरी तश्हीर से है मैं ख़ुद साया हूँ 'अफ़सर' अपने क़द का मिरा क़ामत मिरी तहरीर से है