शो'ला-ए-गुल से रंग-ए-शफ़क़ तक आरिज़-ओ-लब की बात गई छिड़ गया जब भी तेरा क़िस्सा ख़त्म हुआ दिन रात गई सूखे होंट तो बूँद को तरसे मीना ख़ाली जाम तही लेकिन फिर भी चंद लबों तक साक़ी की सौग़ात गई सरगोशी में बात जो की थी क्या थी हम ख़ुद भूल गए लेकिन एक फ़साना बन कर दुनिया तक वो बात गई यादों के ज़हरीले नश्तर टूट रहे हैं रग रग में बरसा कर कुछ ऐसे शो'ले अब के बरस बरसात गई सिसकी इक मजबूर दुल्हन की ज़ह्न में उभरी रह रह कर शहनाई की गूँज में 'अफ़सर' जब भी कोई बारात गई