सफ़र ही कोई रहेगा न फ़ासला कोई ये इक ख़याल है इस पर भी तब्सिरा कोई रक़म हुआ हूँ यक़ीन ओ क़यास दोनों में करे तो कैसे करे मेरा तज्ज़िया कोई वो दस्त-ए-संग है मैं आईना-गिरफ़्ता हूँ न हो सकेगा कभी हम में तस्फ़िया कोई ज़मीं पे आए न आए ये वहम है सब को ख़ला की गोद में पलता है हादसा कोई मैं इक लकीर का क़ैदी हूँ बावजूद इस के हर इक लकीर से मिलता है सिलसिला कोई न जाने किस लिए रोता हूँ हँसते हँसते मैं बसा हुआ है निगाहों में आईना कोई हवा सुलाती है दामन में ज़र्द पत्तों को उसे भी चाहिए जीने का मश्ग़ला कोई भला है दूर रहे इक हरीफ़ की मानिंद है फिर भी साए का मुझ से मुआमला कोई लिखा गया नहीं 'मंज़ूर' आज तक शायद शफ़क़ के बाब में सुब्हों का तज़्किरा कोई