सफ़र का ख़्वाब था आब-ए-रवाँ पे रक्खा था कोई सितारा खुले बादबाँ पे रक्खा था भुला गया है मुझे गुफ़्तुगू के सारे मज़े बस एक लफ़्ज़ था पल भर ज़बाँ पे रक्खा था वो एक ख़ाक सा मंज़र बस अब बहुत है मुझे उठा के जो कभी क़िर्तास-ए-जाँ पे रक्खा था मैं क्या गया कि हुआ ख़ुश्क चश्मा-ए-महताब अभी तो पहला क़दम आसमाँ पे रक्खा था उसी को 'शाहीं' मुक़र्रर किया है जा-ए-विसाल कनारा-ए-शब-ए-हिज्राँ जहाँ पे रक्खा था