सफ़र कठिन ही सही क्या अजब था साथ उस का अँधेरी रात में मेरा दिया था हाथ उस का कुछ ऐसी नींद से जागी कि फिर न सोई वो आँख जला किया यूँही काजल तमाम रात उस का तमाम शब वो सितारों से गुफ़्तुगू उस की तमाम शब वो समुंदर सा इल्तिफ़ात उस का कभी वो रब्त कि आँखों में जिस तरह काजल कभी बिछड़ के वो मिलना ग़ज़ल-सिफ़ात उस का दुआ के हाथ ही जैसे दिया सँभालते हैं मोहब्बतों में वो उस्लूब-ए-एहतियात उस का मैं अपने घर के अँधेरों में लौट आया 'शौक़' पुकारता ही रहा मुझ को शहर-ए-ज़ात उस का