सफ़र तमाम हुआ गर्द-ए-जुस्तुजू भी गई तिरी तलाश में निकली तो आरज़ू भी गई इक इंतिज़ार सा था बर्फ़ के पिघलने का फिर उस के बा'द तो उम्मीद-ए-आबजू भी गई तलब की राह में ऐसे भी मोड़ आए हैं कि हर्फ़-ओ-सौत गया शोख़ी-ए-गुलू भी गई ये बर्ग-ओ-बार कहाँ जाज़िब-नज़र ठहरे तुम्हारे बा'द तो फूलों से रंग-ओ-बू भी गई कुछ ऐसे ख़ाक उड़ाई है दश्त-ए-हू में 'जमाल' कि जज़्ब-ए-शौक़ भी तफ़रीक़-ए-मा-ओ-तू भी गई