सफ़ेद-पोश दरिंदों ने गुल खिलाए थे ज़मीन सुर्ख़ हुई सब्ज़ करने आए थे समझ लिया था जिन्हें मैं ने रौशनी का सफ़ीर वो आस्तीन में ख़ंजर छुपा के लाए थे मुसाफ़िरों को घनी छाँव ले के बैठ गई दरख़्त राह के दोनों तरफ़ लगाए थे मुझे भी चारों तरफ़ तिश्नगी ने दौड़ाया मिरी निगाह पे आब-ए-रवाँ के साए थे मुझे ग़ुरूर है मैं दोस्तों की नेकी हूँ उन्हें ख़ुशी है कि दरिया में डाल आए थे मिरे अज़ीज़ थे वो क़ब्र खोद के रख दी मुझे जो दे गए मिट्टी वो सब पराए थे हवा तो अपना क़रीना बदल नहीं सकती चराग़ आप ने किस ज़ो'म में जलाए थे