सफ़ीना ले गए मौजों की गर्म-जोशी में हज़ीमत आई नज़र जब किनारा-कोशी में नशा चढ़ा तो ज़बाँ पर न इख़्तियार रहा वो मुन्कशिफ़ हुए ख़ुद अपनी बादा-नोशी में बना लिया उसे सानी फिर अपनी फ़ितरत का सुकूँ जो मिलने लगा उन को ज़हर-नोशी में क़ुबूल रब्ब-ए-करीम-ओ-रहीम ने कर ली मिरी ज़बाँ पे जो आई दुआ ख़मोशी में खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर हज़ार भेद छुपा रक्खे थे ख़मोशी में पसंद की न ज़माने ने सादगी मेरी भरम रक्खा है ख़ुदा ने सफ़ेद-पोशी में ज़द-ए-इताब में उन के जो आ गए 'अनवर' न जाने कह गए क्या क्या वो गर्म-जोशी में