सफ़ों को जोड़ कोई एहतिमाम पैदा कर नज़र को ताब दे ज़र्फ़-ए-इमाम पैदा कर मुजाहिदात में अपना मक़ाम पैदा कर ख़मोशियों से भी हुस्न-ए-कलाम पैदा कर चराग़-पा न हो लोगों की नुक्ता-चीनी पर दिलों को जीत सके वो मक़ाम पैदा कर अभी सदा-ए-तलब से है मै-कदा ख़ाली कि दौर-ए-जाम में तासीर जाम पैदा कर गुज़र गए हैं जो औक़ात उन का मातम क्या कोई सलीक़े का अब तो निज़ाम पैदा कर 'रविश' फ़ज़ा है मुकद्दर मुनाफ़रत की जहाँ वहीं की ख़ाक से ख़ुशबू मुदाम पैदा कर