ग़म छपाऊँ कि आश्कार करूँ कौन सी वज़्अ इख़्तियार करूँ हादसों से निगाह चार करूँ ग़म के लम्हों को शाहकार करूँ और क्या है जो नज़्र-ए-यार करूँ जी में आता है जाँ-निसार करूँ ज़िंदगी को ही जब सबात नहीं और फिर किस का ए'तिबार करूँ तुम भी महबूब ज़िंदगी भी अज़ीज़ तुम को चाहूँ कि ख़ुद से प्यार करूँ और भी मश्ग़ले हैं वहशत के क्यों गरेबाँ ही तार तार करूँ क्या क़यामत से कम है शाम-ए-फ़िराक़ और किस दिन का इंतिज़ार करूँ हर सहारा है जब तिरा मुहताज क्यों सहारों पे इंहिसार करूँ 'ज़ब्त' जब ज़ब्त-ए-ग़म की है ताकीद क्यों न ये जब्र इख़्तियार करूँ