साग़र-ए-दिल कैफ़-ओ-मस्ती से लबालब भर गया किस का ए'जाज़-ए-नज़र सरशार ओ बे-ख़ुद कर गया उन के दामन से हुई कुछ इस क़दर वाबस्तगी ग़ुंचा-ए-दिल खिल गया फूलों से दामन भर गया हम तआ'क़ुब भी न कर पाए कहाँ की हम-रही गर्द ही आई नज़र जिस राह से रहबर गया बे-ख़ता होने पे भी इल्ज़ाम अपने सर रहे कौन जाने जौर का इल्ज़ाम किस के सर गया ख़ौफ़ कुछ ऐसा बढ़ाया ज़ुल्मत-ए-एहसास ने और तो और अक्सर अपने साए से दिल डर गया मुनहसिर ज़ौक़-ए-नज़र पर है नज़ारों की बिसात जिस तरफ़ उट्ठी निगाहें उस तरफ़ मंज़र गया उस के नक़्श-ओ-अक्स की परछाइयाँ देखा किए तोड़ कर रिश्ते दिलों के जो किनारा कर गया ज़ो'म था जिस को 'रिशी' हुस्न-अदा-ए-नाज़ पर आइना देखा तो अपनी ही नज़र से डर गया