सहर की धूप सा निखरा जमाल था कोई वो चाँद-रात में दिलकश ख़याल था कोई भुला दे अर्श की जन्नत का ख़्वाब आँखों को बहार-ए-हुस्न से यूँ माला-माल था कोई सहर के नूर से बे-नूर चाँद का चेहरा बिछड़ के रात से बेहद निढाल था कोई मिलेगा कब मुझे बे-रंग रतजगों का जवाब ख़मोश रात से लिपटा सवाल था कोई ख़ुशी थी चेहरे पे लेकिन कोई न जान सका ख़ुशी के पीछे बहुत पुर-मलाल था कोई