जज़्बात का ख़ामोश असर देख रहा हूँ बेचैन है दिल आँख को तर देख रहा हूँ ख़ाकिस्तर-ए-परवाना है बुझती हुई शमएँ रंगीन मोहब्बत की सहर देख रहा हूँ मौहूम हुआ जाता है अब मक़्सद-ए-हस्ती बातिल को हक़ीक़त पे ज़बर देख रहा हूँ छाए हैं कुछ इस तरह मिरे दीदा-ओ-दिल पर हर सम्त वही हैं मैं जिधर देख रहा हूँ मंज़िल का पता है न मक़ामात सफ़र का तय्यार है अब रख़्त-ए-सफ़र देख रहा हूँ जिस राह से गुज़रे थे मोहब्बत के मुसाफ़िर सुनसान वही राहगुज़र देख रहा हूँ ऐ 'मौज' बला-ख़ेज़ है दरिया-ए-मोहब्बत तूफ़ान का आलम है जिधर देख रहा हूँ