सहर को भी मिरी महफ़िल में बरहमी न हुई तमाम-रात हुई दर्द में कमी न हुई ग़ुरूर-ए-हुस्न तमन्ना-ए-दिल का दुश्मन था वो कौन दिन था कि जिस दिन हमाहमी न हुई उमँड रही है मिरे दिल के साथ बरसों से ये कोई नहर हुई आँख की नमी न हुई मैं अपने क़त्ल का शाकी नहीं हुआ तो हुआ ये रंज है कि तिरे ज़ुल्म में कमी न हुई लहद पे आने की अंदाज़ सैकड़ों थे मगर ख़ुश आई वज़्अ उन्हें वो जो मातमी न हुई उलट उलट गए दिल मेरे इंतिक़ाल के बा'द ये क्या कि आप की ज़ुल्फ़ों में बरहमी न हुई हज़ारों उठ गए आग़ोश-ए-दहर से लेकिन अजीब घर है ज़माना जहाँ ग़मी न हुई ये जिस्म रूह-बही-ख़्वाह का रहा दुश्मन तमाम-उम्र कभी सुल्ह-ए-बाहमी न हुई हर एक के लिए खींचा रवा नहीं 'साक़िब' भवों का हुस्न ही क्या है अगर ख़मी न हुई