सहर को धुँद का ख़ेमा जला था हयूला कोहर के अंदर छुपा था मकाँ जिस्मों की ख़ुशबू से था ख़ाली मगर सायों से आँगन भर गया था जली हिद्दत से नम-आलूद मिट्टी कोई सूरज ज़मीं में धँस गया था ख़मोशी की घुटन से चीख़ उट्ठा मिरा गुम्बद भी सहरा की सदा था उभर आई थी दरियाओं में ख़ुश्की मगर ढलवान पर पानी खड़ा था उड़ा था मैं हवाओं के सहारे रुकी आँधी तो नीचे गिर पड़ा था भयानक था मिरे अंदर का इंसाँ मैं उस को देख कर कितना डरा था लहू 'सिद्दीक़' अब तक बह रहा है कभी इक फूल माथे पर लगा था