सहर मिलने को ख़ुद आई है चलिए हिसार-ए-शब से तो बाहर निकलिए नज़र आए जहाँ भी कोई रहबर वहीं से रास्ता अपना बदलिए पड़े से रास्ता अपना बदलिए कि ठोकर खाइए और फिर सँभलिए बहारों ने तो छोड़ा गुल का दामन चमन की ख़ाक अब चेहरे पे मलिए जहाँ की सर्द-मेहरी कह रही है कि बर्फ़ानी हवा में रह के जलिए न रखिए धूप की तेज़ी हमेशा कभी तो साए के साँचे में ढलिए चट्टानें हर तरफ़ हैं ग़म की 'नाज़िश' जिधर चलना हो दरिया बन के चलिए