साहिब-ए-फ़हम-ओ-फ़रासत जो हैं घर बैठे हैं और हर मोड़ पे कुछ शो'बदा-गर बैठे हैं जिस तरफ़ सब हैं उधर होना बड़ी बात न थी कुछ तो उलझन है जो हम आ के इधर बैठे हैं आसमानों के इशारे नहीं समझे हम ने अब ज़मीनों पे समेटे हुए पर बैठे हैं ऐ मिरे दीदा-वरो कौन सी मजबूरी है क्यों झुकाए हुए दरबार में सर बैठे हैं शब-परस्तों से निभाना है तअ'ल्लुक़ वर्ना हम छुपाए हुए मुट्ठी में सहर बैठे हैं तू ने मुख़्लिस जिन्हें समझा है नज़र रख उन पर दोस्त बन के तिरी कश्ती में भँवर बैठे हैं शेर अच्छा था मगर दाद नहीं मिल पाई मस्लहत ओढ़ के सब अहल-ए-नज़र बैठे हैं और फिर दिल का कहा मान लिया था 'तारिक़' इक यही कार-ए-नदामत था जो कर बैठे हैं