साहिल से उठा है न समुंदर से उठा है जो शोर मिरी ज़ात के अंदर से उठा है दरिया-ए-मोहब्बत के किनारे कभी कोई डूबा है जो इक बार मुक़द्दर से उठा है वो आए तो इस ख़्वाब को ता'बीर मिलेगी जो ख़्वाब-ए-जज़ीरा मिरे सागर से उठा है मैं अपने रग-ओ-पै में उसे ढूँड रही हूँ जो शख़्स अभी मेरे बराबर से उठा है रक़्साँ है मिरी आँख में एहसास की मानिंद मंज़र जो तिरी आँख के मंज़र से उठा है फूलों को तिरे रंग ने बख़्शी है कहानी ख़ुश्बू का फ़साना तिरे पैकर से उठा है इस शहर-ए-मोहब्बत में वो रुकता ही नहीं है जो शोर तिरे प्यार के मेहवर से उठा है ये उस का रवय्या ये अना ये लब-ओ-लहजा इन सब के सबब अम्न-ओ-सुकूँ घर से उठा है मेहर-ओ-मह-ओ-अंजुम में उसे ढूँडने वालो ये सारा जहाँ ख़ाक के पैकर से उठा है रहता है मिरी आँख में काजल की तरह से जो दूर तमन्नाओं के तेवर से उठा है मैं दर से तिरे उठ के इसी सोच में गुम हूँ क्या कोई ख़ुशी से भी तिरे दर से उठा है जो उस की नज़र से कभी 'अफ़रोज़' उठा था इस बार वो महशर मिरे अंदर से उठा है