सब मुतमइन थे सुब्ह का अख़बार देख कर ख़ाइफ़ थे हम नविश्ता-ए-दीवार देख कर मुंसिफ़ गवाह हद है कि मज़लूम बिक गए क़ीमत लगी जो ज़र्फ़-ए-ख़रीदार देख कर मैं बोरिया-नशीन ग़रीब-उल-वतन फ़क़ीर हैराँ था शान-ओ-शौकत-ए-दरबार देख कर ना-वाक़िफ़-ए-रुसूम-ए-हुज़ूरी था कि गया सब दम-ब-ख़ुद थे जुरअत-ए-इज़हार देख कर ऐसा नहीं कि सब थे हक़ाएक़ से ना-बलद बस बोलते थे चश्म-ए-शरर-बार देख कर तर्क-ए-तवहहुमात ने बे-फ़ैज़ कर दिया भटके थे हम भी जुब्बा-ओ-दस्तार देख कर कोशिश मैं करता रहता हूँ ग़ज़लों में अपनी 'ताज' बातें बनाऊँ चश्म-ओ-रुख़-ए-यार देख कर