साहिलों पर उदासी रही इक नदी फिर से प्यासी रही रात ने नींद पहनी मगर ख़्वाब की बे-लिबासी रही हुस्न वो खिलखिलाता रहा इश्क़ पर बद-हवासी सी रही आज फिर कुछ न कह पिए हम आज फिर बात बासी रही कम न हो लम्स की आँच ये बर्फ़ बस अब ज़रा सी रही जिस्म मंदिर हुआ सो हुआ रूह तो देव-दासी रही मौत पर किस लिए रोएँ हम ज़िंदगी अच्छी-ख़ासी रही