सहरा की वुसअ'तों में इक साएबाँ नहीं है इतने बड़े जहाँ में इक राज़दाँ नहीं है मेरी ज़बाँ तो चुप है लेकिन तुझे बता दूँ सदियों में मिटने वाली ये दास्ताँ नहीं है बे-मोल बिक रहा हूँ तारीक सी गली में अहल-ए-नज़र से लेकिन जौहर निहाँ नहीं है तेरा अयाँ हो जल्वा और ज़ब्त भी हो लाज़िम क्या हौसला है जिस के लब पर फ़ुग़ाँ नहीं है मेरा जहाँ सजा दे जादू तिरी नज़र का बदला उसी अता का सारा जहाँ नहीं है जो बे-हुनर हैं उन में रुत्बे बटे हुए हैं अहल-ए-हुनर का पुरसाँ कोई यहाँ नहीं है ग़म में न डूब 'शाहीं' ख़ुशियाँ भी देख अपनी इंसाँ नहीं जो दिल पर ग़म का निशाँ नहीं है