सहरा सहरा घूम रहे हैं क्या क्या स्वाँग रचाए हैं आज तुम्हारे शहर में प्यारे जोगी बन कर आए हैं चारों ओर अंधेरा पा कर मन की जोत जगाए हैं जो 'आलम में रुस्वा कर दे ऐसा रोग लगाए हैं ग़म की बातें कहते कहते होंटों को सी लेते हैं कितना बोझ है भारी दिल पर जो बरसों से उठाए हैं हम हैं तन्हा रैन अँधेरी तूफ़ानों का झोंका भी चलते ही बुझ जाते हैं सब जितने चराग़ जलाए हैं 'सूफ़ी' जी दीवाने ठहरे अक़्ल-ओ-होश की बात कहाँ लेकिन वो भी तुझ से बिछड़ कर आज बहुत पछताए हैं