सहरा से दूर रहती है फ़स्ल-ए-बहार क्यों ये जान कर भी उस को रहे इंतिज़ार क्यों संगम है रंग-ओ-बू का शगुफ़्ता है हर गुलाब शबनम को ले के आँखों में है सोगवार क्यों जब तुझ को जान-ओ-दिल में भी तहलील कर लिया फिर आए लब पे नाम तिरा बार बार क्यों तेरी वफ़ा पे दिल को भरोसा तो है मगर करता है फिर सवाल मुझे ए'तिबार क्यों जब मैं ने तेरे पाँव पे सर अपना रख दिया बे-सर को ऐसे देता है फिर इख़्तियार क्यों है इज़्तिराब-ए-दिल भी अगर प्यार का असर देते हो फिर कभी कभी दिल को क़रार क्यों तुझ से उधार माँगी थी आँखों की रौशनी अंधे को मिल सकी न मगर रहगुज़ार क्यों