सैल-ए-बला-ए-ग़म न पूछ कितने घरौंदे ढह गए नाव तो ख़ैर नाव थी साथ किनारे बह गए दिल में हुजूम-ए-शौक़ था लब पे न बात आ सकी अब्र फ़लक पे खुल गए बीज ज़मीं पे रह गए किस में थी ताब-ए-ज़ख़्म-ए-शौक़ किस में था ग़म का हौसला हम ही ये दुख उठा गए हम ही ये दर्द सह गए हम-सफ़रान-ए-शौक़ ने राह में हार मान ली दश्त-ए-शब-ए-फ़िराक़ में हम ही अकेले रह गए 'मोहसिन'-ए-बे-नवा को भी दाद-ए-कमाल दीजिए वो भी हदीस-ए-दर्द-ए-जाँ अपनी ग़ज़ल में कह गए