तमाम-उम्र की ग़फ़लत के बा'द ख़्वाब आया उठा जो पर्दा-ए-हस्ती मुझे हिजाब आया अजल-नसीब था शाम-ए-विसाल ख़्वाब आया वो बे-हिजाब हुए तो मुझे हिजाब आया बला है अहद-ए-जवानी से ख़ुश न हो ऐ दिल सँभल कि उम्र की दुनिया में इंक़लाब आया बढ़ाए हौसले दरिया-दिली ने साक़ी की ज़रा से जाम में सौ बार आफ़्ताब आया कोई सदा नहीं आती कि कौन है क्या है कहाँ भटक के दिल-ए-ख़ानुमाँ-ख़राब आया उम्मीद-ओ-बीम में रक्खा तमाम रात मुझे कभी नक़ाब उठाई कभी हिजाब आया ज़माने वालों को पहचानने दिया न कभी बदल बदल के लिबास अपने इंक़लाब आया सिवाए यास न कुछ गुम्बद-ए-फ़लक से मिला सदा भी दी तो पलट कर वही जवाब आया उड़ा के होश हुआ हो गई तजल्ली-ए-तूर सभों से आँख चुराता हुआ हिजाब आया हरीफ़-ए-मय नहीं समझा तो क्यूँ मिरी जानिब लहू के घूँट पिए साग़र-ए-शराब आया हटे न अपनी तबीअत से हुस्न-ओ-इश्क़ कभी हज़ार बार ज़माने में इंक़लाब आया सुनाईं क्या तुम्हें नैरंग-ए-इश्क़ का क़िस्सा तमाम-उम्र न आँखें खुलीं न ख़्वाब आया खटक वो दिल में ही पैदा जो आज तक न हुई समझ रहा हूँ कि तिफ़्ली गई शबाब आया कफ़न पिन्हा दिया 'साक़िब' सनम-परस्ती ने ख़ुदा के सामने जाते हुए हिजाब आया