सजा के ज़ेहन में कितने ही ख़्वाब सोए थे खुली जो आँख तो ख़ुद से लिपट के रोए थे चहार सम्त बस इक बे-कराँ समुंदर है बताएँ क्या कि सफ़ीने कहाँ डुबोए थे तहों में रेत उबलती है क्या पता था हमें ज़मीं समझ के ज़मीनों में बीज बोए थे सियाह रात में बच्चे की तरह चौंक पड़े तमाम दिन जो उजालों से लग के सोए थे अजीब बात हमारा ही ख़ूँ हुआ पानी हमीं ने आग में अपने बदन भिगोए थे हमारे हाथ से वो भी निकल गया आख़िर कि जिस ख़याल में हम मुद्दतों से खोए थे