साज़-ए-दिल साज़-ए-जुनूँ साज़-ए-वफ़ा कुछ भी नहीं वो न हों पास तो जीने का मज़ा कुछ भी नहीं जीने वालों के लिए इस की बड़ी क़ीमत है मरने वालों के लिए आब-ए-बक़ा कुछ भी नहीं मस्लहत कहती है लोगों से कि मेरे घर में इस तरह आग लगी है कि जला कुछ भी नहीं उन के हाथों में है तक़दीर जहाँ दीवाने तेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं बे-ख़ता ऐसे भी देखे हैं जहाँ में तुम ने है ख़ता जिन का ये कहना कि ख़ता कुछ भी नहीं जब से मजरूह हुई लज़्ज़त-ए-एहसास-ए-अलम दर्द में ग़म में तड़पने में मज़ा कुछ भी नहीं क्या बताएँ कि ग़म-ए-दिल के अलावा 'शाहिद' हम को इस शहर-ए-निगाराँ से मिला कुछ भी नहीं