साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना इश्क़ शादमाँ अपना शौक़ कामराँ अपना आह बे-असर किस की नाला ना-रसा किस का काम बार-हा आया जज़्बा-ए-निहाँ अपना कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना उलझनों से घबराए मय-कदे में दर आए किस क़दर तन-आसाँ है ज़ौक़-ए-राएगाँ अपना कुछ न पूछ ऐ हमदम इन दिनों मिरा आलम मुतरिब-ए-हसीं अपना साक़ी-ए-जवाँ अपना इश्क़ और रुस्वाई कौन सी नई शय है इश्क़ तो अज़ल से था रुस्वा-ए-जहाँ अपना तुम 'मजाज़' दीवाने मस्लहत से बेगाने वर्ना हम बना लेते तुम को राज़-दाँ अपना