सख़ावतों के बहाने से छल रहे हैं लोग न जाने कौन से साँचे में ढल रहे हैं लोग मसर्रतें न जिन्हें रास आईं औरों की ग़मों की धूप में बैठे पिघल रहे हैं लोग जो ख़ुद-परस्त हैं इंसाँ मफ़ाद के पैकर उन्हीं के मक्र फ़रेबों में ढल रहे हैं लोग कहाँ मैं आ गया इस बज़्म में सुकूँ के लिए यहाँ तो आप ही आपस में जल रहे हैं लोग न जाने कौन सी मुश्किल में फँस गई दुनिया मिसाल-ए-आतिश-ए-ख़ामोश जल रहे हैं लोग वो नीम वाली गली अब नज़र नहीं आती तमाम शहर का नक़्शा बदल रहे हैं लोग ज़रा तू घर से निकल कर तो देख दुनिया को हर एक गाम पे 'स्वामी' बदल रहे हैं लोग